आज के समाज की दशा कुकृत्यों से शोचनीय है। न जाने कितने नरपिशाच अपने स्वार्थों के कारण सामाजिक व्यवस्था को तार-तार कर रहे हैं। प्रायः सर्वत्र अकर्मण्यता, स्वार्थपरायणता, निर्धनता, कामुकता, विषयासक्ति, दुराचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, परधनहरण, आतंकवाद, जातिवाद, अशिक्षा, नैतिकपतन, कुटिलराजनीति इत्यादि दोष पद-पद पर देखे जा रहे हैं। अद्यतनीय शिक्षासंस्थानों से प्रतिवर्ष लाखों, करोड़ों छात्र स्वकीय शिक्षा पूर्ण कर सामाजिकक्षेत्र में आते हैं, किन्तु क्या वहाँ किंचित् मात्र भी माता पिता में भक्ति, गुरुजनों में आदरभाव, स्वदेश में अनुरक्ति, कर्त्तव्य कार्य के प्रति अनुराग है? नहीं। परन्तु केवल अर्थासक्ति है और तद्द्वारा कामनापूर्ति तथा व्यसनों में अत्यादर। यही नहीं जिस शहरी समाज में नित्य बच्चों तक के साथ बलात्कार कर गन्दे नाले में फेंक देने की वहसी निठारी, नोयडा की और किडनी बेचने की गुड़गाँव जैसी घृणित अनैतिक आचरणों की घटनाएँ हैं। लूटपाट और डकैतियाँ हैं। बच्चों के अपहरण और फिरौतियाँ हैं। दूसरों की सम्पत्तियों पर अधिकार जमाने की कोशिशे हैं। असहिष्णुता है। आत्महत्याएँ हैं। असमानता ऐसी कि एक तरफ कठोर परिश्रम है, परन्तु भर पेट पूरे परिवार के लिए रोटी नहीं, दूसरी और गगनचुम्बी कोठियाँ हैं, जिनमें भोग और विलासिता है। शराब और जूए का दुश्चक्र है। आलस्य, प्रमाद है। स्वार्थी राक्षसी वृत्ति है। अर्थासक्ति ऐसी कि उसके सामने कोई पिता, भाई, बहन आदि का सम्बन्ध कुछ नहीं। प्राणीमात्र के लिए दया का अभाव है। प्रकृति का दोहन इतना कि पर्यावरण कितना ही अशुद्ध हो उससे कुछ लेना देना नहीं। न देशप्रेम है। न दयाधर्म है। सत्यवादिता, परोपकार आदि गुण कोसों दूर हैं। राष्ट्र की सम्पत्ति को अपनी माँगो को लेकर कूड़े के ढ़ेर के समान अग्निसात् कर दिया जाता है। केवल अधिकारों की बात होती है, कर्त्तव्यभावना की नहीं। परिवार और समाज टूट रहे हैं। समाज में पनप रहे ऐसे अनेक दोष नित्य समाचार पत्रों की मुख्य पंक्तियाँ बनते हैं। आज के समाज को देखते हुए यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है कि जितना अधिक आज की शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है, घर-घर विद्यालय खुल रहे हैं, उतना ही मानव का मानसिक प्रदूषण बढ़ रहा है। आज के शिक्षित व्यक्तियों की गाँव के बीस वर्ष पूर्व के अनपढ़ व्यक्तियों से तुलना करें तो वे एक दूसरे से प्यार करने वाले, सुख दुःख को बाँटने वाले, परोपकारी आदि गुणों वाले थे और ये शिक्षित होकर अधिक बेईमान, छलकपटी, चोर, स्वार्थी, ईर्ष्यालु हो गये हैं। अब वहाँ भी भौतिकता के प्रभाव में नित्य नवीन अपराधों का उदय हो रहा है। इसीलिए आज की गर्हित सामाजिक स्थिति और शिक्षाव्यवस्था अन्योन्याश्रित हुई प्रमुखतः वर्तमान विसंगतियों का परिणाम कही जा सकती हैं- जिसे अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहाँ हृदयविहीन भावशून्य मशीनी मानव बनाने की शक्ति तो है, परन्तु मानवनिर्मात्री शक्ति नहीं।
साथी घर जाकर मत कहना,संकेतों में बतला देना यु द्ध में जख्मी सैनिक साथी से कहता है: ‘साथी घर जाकर मत कहना, संकेतो में बतला देना; यदि हाल मेरी माता पूछे तो, जलता दीप बुझा देना! इतने पर भी न समझे तो, दो आंसू तुम छलका देना!! यदि हाल मेरी बहना पूछे तो, सूनी कलाई दिखला देना! इतने पर भी न समझे तो, राखी तोड़ दिखा देना !! यदि हाल मेरी पत्नी पूछे तो, मस्तक तुम झुका लेना! इतने पर भी न समझे तो, मांग का सिन्दूर मिटा देना!! यदि हाल मेरे पापा पूछे तो, हाथों को सहला देना! इतने पर भी न समझे तो, लाठी तोड़ दिखा देना!! यदि हाल मेरा बेटा पूछे तो, सर उसका सहला देना! इतने पर भी ना समझे तो, सीने से उसको लगा लेना!! यदि हाल मेरा भाई पूछे तो, खाली राह दिखा देना! इतने पर भी ना समझे तो, सैनिक धर्म बता देना!!
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